लक्ष्मी नारायण
भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। एशिया में यह सबसे मज़बूत लोकतंत्र भी साबित हुआ है। पन्द्रह महीने के आपातकाल, जो संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत था, को छोड़ दें
तो यहाँ लोकतंत्र की ध्वजा पताका ऊँची फहराती ही रही है और हर लोकतंत्रप्रेमी इसे हमेशा फहराते हुए ही देखना चाहेगा। इसका श्रेय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्वप्न दृष्टाओं, सेनानियों और संविधान सभा को ही जाता है जिसने लोकतंत्र की मज़बूत नींव रखी। लोकतंत्र, इस देश की रगों में खून की तरह बहता रहा है। इतिहास में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं और आज तो यह सामने मौजूद ही है। चालू वर्ष के शुरू में मनाये गए गणतंत्र दिवस के एक दिन पूर्व ” मतदाता दिवस ” मनाते हुए, मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने देश में , अपने वोट से अपनी सरकार चुनने वाले मतदाताओं की गिनती 85 करोड़ बताई थी जो यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल आबादी से ज्यादा है।
भौगोलिक लिहाज से दुनिया के सातवें सबसे बड़े देश में बसे सवासौ करोड़ से ज्यादा लोगों और 85 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं जिनमें आधे से ज्यादा जोशीले युवाओं की फ़ौज हो, को मुगालते में डालकर लोकतंत्र को खतरे में डालना आसान काम नहीं है। फिर भी ऐसा नहीं है कि देश में लोकतंत्र की अखंड जोत निरापद है। प्रधानमंत्री पद पर बैठा, एक व्यक्ति अपनी कुर्सी खतरे में जानकर, बिना किसी सलाह–मशविरे के देश में आपातकाल की घोषणा कर सकता है, एक लाख से ज्यादा लोगों को जेल में ठूंस सकता है और सारे कानूनों को ठण्डे बस्ते में डाल सकता है। वही व्यक्ति मन में इतना डरा हो सकता है कि सेनाध्यक्ष को चुपचाप बुलाकर पूछ सकता है कि — क्या तुम मुझे गिरफ्तार करोगे। इन दुर्दिनों के करीब तीन दशक बाद, एक सुबह लोग अख़बारों में पढ़ते हैं कि — सेना ने सत्ता हाथ में लेने के लिए राजधानी की ओर कूच किया। यद्यपि बाद में यह मामला खंडन – मंडन के विवादों का शिकार होकर रहस्य के कोहरे में ढक गया। लेकिन यह विवाद आशंकाओं की घटाओं को ज़रूर लोकतंत्र के आकाश में मंडराते हुए छोड़ गया है । ऐसी बातों से इतना तो लगता ही है कि जिस लोकतंत्र की जोत को हम अखंड और निरापद मान रहे हैं उसके सामने चुनौतियों की आँधियाँ तो है और वे कम भी नहीं हैं। कम से कम उनकी विकरालता को कमतर आंकना तो कमतर समझ की ही निशानी माना जायेगा।
हम बात रोटी से शुरू करते हुईं। जिस देश की अर्थव्यवस्था को विश्वव्यापी मंदी के दौर में भी तेजी से गतिमान होती अर्थव्यवस्था माना जा रहा हो , उस देश की 70 प्रतिशत जनसँख्या दोनों समय भरपेट भोजन करने में सक्षम न हो वह अधभूखी आबादी , कब तक लोकतंत्र की मशाल को मज़बूती से हाथ में थामे रह सकती है — क्या यह विचारणीय प्रश्न नहीं है। पानी, मकान, कपड़ा , इलाज,पढाई, रोजगार और सबको बराबरी का दर्जा — रोटी के साथ जुड़े मसले ही हैं जो जवाब मांग रहे हैं।
देश के जन मानस में गहरी पैठ बनाकर बैठी, गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस में एक चौपाई आती है — सुनहु पवनसुत रहनि हमारी जिमि दसननि महुँ जीभ बिचारी — वैसी ही दशा भारत की अपने पड़ौसियों के बीच है। अपने पड़ौसियों में सबसे अधिक स्थिर, संपन्न, शक्तिशाली और सौहार्द्रपूर्ण होने के बावजूद उसके ज्यादा पड़ौसियों के साथ प्रगाढ़ विश्वास व मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध नहीं है। पाकिस्तान, चीन, नेपाल, बंग्लादेश, आदि के साथ उसके विवाद ज्वलंत हैं। उसके अपने घटक राज्य ( जम्मू–कश्मीर, उत्तर–पूर्व, छत्तीसगढ़, आदि ) अशान्त प्रचारित किये जाते हैं। अन्य स्थानों पर भी कानून और व्यवस्था सामान्य नहीं कही जा सकती। महिलाएं, बच्चे और कमजोर तबकों के लोग दबंगों की ज्यादतियों के शिकार हो रहे हैं। ये चुनौतियाँ , सिर्फ जनतंत्र के समक्ष उपस्थित चुनौतियाँ नहीं हैं बल्कि किसी भी तरह की सरकार के अस्तित्व को ललकारती लपटें हैं।
हमारा देश, सर्वाधिक आबादी के लिहाज से दुनिया में दूसरा स्थान रखता है। फिर यहाँ लोकतंत्र भी है तो ज़ाहिर है लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की संख्या भी बड़ी है। देश की सबसे बड़ी जनप्रतिनिधि सभा , लोकसभा है जिसमें 545 सदस्यों के पद हैं। भारतीय संसद का उच्च सदन राज्यसभा है जिसमें 250 सदस्यों का प्रावधान है। इसके अलावा भारतीय गणराज्य की राज्य विधानसभाओं में विधायकों की संख्या 4120 है। कुछ राज्यों में, देश की संसद की तरह दो सदन हैं। राज्य का दूसरा सदन विधान परिषद कहलाता है इनमें भी निश्चित प्रक्रिया से सदस्य चुने जाते हैं। सात राज्यों में विधान परिषद का अस्तित्व है जिनकी सदस्य संख्या करीब एक हजार है। स्वायत्त शासन की करीब 4 000 नगरीय इकाइयों में पार्षदों की संख्या 2 लाख से कम नहीं है। इसी तरह करीब ढाई लाख ग्राम पंचायतों, पचायत समितियों और जिला परिषदों में 30 लाख निर्वाचित जन प्रतिनिधि मौजूद हैं। इस तरह देश में कुल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या 32 लाख से ऊपर पहुँचती है। केंद्र, राज्य सरकारों और सार्वजनिक उपक्रमों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या करीब दो करोड़ बैठती है। सरकारों द्वारा जनता से वसूले गए टैक्सों, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से प्राप्त कर्जों और सहायताओं से प्राप्त रकम का अधिकांश हिस्सा, वास्तव में इन जनप्रतिनिधियों और राज्यकर्मियों के वेतन–भत्तों तथा इनके पूर्ववर्तियों की पेंशन पर खर्च होता है फिर भी इनके दायित्वों और कार्यों की स्थिति दयनीय है। मोटे रूप में यह कहना ज्यादती नहीं होगी कि जन प्रतिनिधि केवल चुनाव जीतने व अपने व्यक्तिगत हित साधने के ही काम में व्यस्त रहते हैं जिनमे इनकी घोषित–अघोषित मोटी कमाई भी शामिल है। ज़ाहिर है चुनाव खर्च के फ़र्ज़ी आंकड़े देने वालों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। राज्य कर्मी आमतौर पर अपना कर्तव्य सिर्फ वेतन उठाना और रिश्वत लेना मानते हैं। क़ानूनी तौर पर ये इतने सक्षम हैं कि इनके खिलाफ कार्रवाई करना बहुत मुश्किल है। जनप्रतिनिधियों व राज्यकर्मियों के अपराधिक रेकार्ड इस के साक्ष्य हैं।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि — दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का और दुनिया का सबसे बड़ा संविधान इतना ढुलमुल है कि इसे कोई भी मनचला हाथ में लेकर प्रचार के पन्नों की तरह हवा में उड़ा सकता है। दूसरा यह कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी, सरकार और देशवासी अपने देश से भूख और बेरोजगारी दूर करने में कामयाब नहीं हुए हैं। तीसरा यह कि राज्यकोष पर पलने वालों की जवाबदेही तय करने और उन्हें ईमानदारी से दण्डित करने का एक भी हिम्मतवर समाधान हमारे पास मौजूद नहीं है। इनमें से सिर्फ एक आखिरी चुनौती का समाधान ढूंढने में , हम अगर कामयाब हो सकते हैं तो निश्चित ही इस देश और इसके लोकतंत्र को हिलाने और डिगाने की सामर्थ्य किसी में नहीं हो सकती है। कहा है न — एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय। रहिमन मूलहिं सींचबो, फूलहिं–फलहिं अघाय।
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